ADR की रिपोर्ट ने खोला वंशवाद का सच, जानें किस पार्टी में सबसे ज्यादा असर
2. बिहार में वंशवाद की स्थिति
रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार के कुल 360 मौजूदा सांसद, विधायक और विधान परिषद सदस्य में से 96 लोग राजनीतिक परिवारों से आते हैं। यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत (21%) से काफी अधिक है। इसका मतलब है कि बिहार में नए चेहरों की एंट्री अब भी कठिन है और परिवार-आधारित राजनीति हावी है।
3. राष्ट्रीय बनाम बिहार: तुलनात्मक आंकड़े
देशभर में 5,204 प्रतिनिधियों में 1,107 (21%) का पारिवारिक राजनीतिक बैकग्राउंड है, जबकि लोकसभा में यह शेयर 31% तक पहुंचता है। इस लिहाज से बिहार की 27% हिस्सेदारी उसे “वंशवाद टॉप स्टेट्स” में लाती है।
4. किस पार्टी में सबसे ज्यादा वंशवाद
राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में सबसे अधिक वंशवाद दिखा, जहां 32% प्रतिनिधि परिवारों से आते हैं। भाजपा में यह प्रतिशत लगभग 18% बताया गया है। बिहार में आरजेडी और जेडीयू जैसे बड़े दलों में भी परिवारिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की हिस्सेदारी अधिक देखी जाती है।
5. प्रमुख राजनीतिक परिवारों के उदाहरण
बिहार के लालू-राबड़ी परिवार (तेजस्वी, तेजप्रताप), पासवान परिवार (चिराग पासवान), मिश्रा और यादव परिवारों समेत कई पुराने राजनीतिक घराने हैं जो आज भी सक्रिय हैं। इन परिवारों के कई सदस्य अलग-अलग स्तर पर राजनीति में हैं।
6. महिलाओं में वंशवाद ज्यादा
ADR की रिपोर्ट बताती है कि महिलाओं के मामले में वंशवाद की हिस्सेदारी और भी अधिक है। यानी महिला नेताओं को अक्सर परिवारिक राजनीतिक आधार के ज़रिये ही मंच मिलता है।
7. लोकतंत्र पर असर
विशेषज्ञ मानते हैं कि वंशवाद आंतरिक लोकतंत्र को कमजोर करता है। इससे नई प्रतिभाओं और जमीनी कार्यकर्ताओं के लिए रास्ते संकुचित हो जाते हैं। लंबे समय में यह जनता के प्रतिनिधित्व और नीतियों पर असर डाल सकता है।
8. वोटरों के लिए संकेत
यह रिपोर्ट वोटरों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या वे पार्टी या प्रत्याशी को चुनते वक्त उनके परिवारिक बैकग्राउंड को भी तौलते हैं। अगर जनता बदलाव चाहती है तो उसे वोटिंग के दौरान इस पहलू पर ध्यान देना होगा।
9. भविष्य की राह
सुधार के लिए राजनीतिक दलों को पारदर्शी टिकट वितरण, पार्टी-आंतरिक चुनाव और युवाओं को मौका देने जैसे कदम उठाने होंगे। तभी लोकतंत्र मजबूत और प्रतिनिधित्व अधिक समावेशी होगा।
10. निष्कर्ष
बिहार के 27% वंशवादी सांसद-विधायकों का आंकड़ा इस बात का संकेत है कि राज्य की राजनीति में अब भी परिवारिक पकड़ गहरी है। जब तक पार्टियां और जनता दोनों मिलकर इस प्रवृत्ति को चुनौती नहीं देंगे, तब तक नए चेहरों के लिए जगह बनाना कठिन रहेगा।

